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Crop Diversification

पराली जलाने की समस्या से कैसे निपटा जाए?

पराली जलाने की समस्या से कैसे निपटा जाए?

हमारे देश में किसान फसलों के बचे भागों यानी अवशेषों को कचरा समझ कर खेत में ही जला देते हैं. इस कचरे को पराली कहा जाता है. इसे खेत में जलाने से ना केवल प्रदूषण फैलता है बल्कि खेत को भी काफी नुकसान होता है. ऐसा करने से खेत के लाभदायी सूक्ष्मजीव मर जाते हैं और खेत की मिट्टी इन बचे भागों में पाए जाने वाले महत्त्वपूर्ण पोषक तत्त्वों से वंचित रह जाती है. किसानों का तर्क है कि धान के बाद उन्हें खेत में गेहूं की बुआई करनी होती है और धान की पराली का कोई समाधान नहीं होने के कारण उन्हें इसे जलाना पड़ता है. पराली जलाने पर कानूनी रोक लगाने के बावजूद, सही विकल्प ना होने की वजह से पराली जलाया जाना कम नहीं हुआ है. खरीफ फसलों (मुख्यतः धान) को हाथों से काटने और फसल अवशेष का पर्यावरणीय दृष्टि से सुरक्षित तरीके से निपटान करने के काम में ना केवल ज्यादा समय लगता है बल्कि श्रम लागत भी अधिक हो जाती है. इससे कृषि का लागत मूल्य काफी बढ़ जाता है और किसान को घाटा होता है. इसलिए इस स्थिति से बचने के लिए और रबी की फसल की सही समय पर बुआई के लिए किसान अपने फसल के अवशेष को जलाना बेहतर समझते हैं. अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (आईएफपीआरआई) के एक अध्ययन के मुताबिक उत्तर भारत में जलने वाली पराली की वजह से देश को हर साल लगभग दो लाख करोड़ रुपए का नुकसान होता है. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में सर्दियों में बढ़ने वाले दम घोंटू प्रदूषण की एक बड़ी वजह पड़ोसी राज्यों पंजाब और हरियाणा में पराली का जलाया जाना है. अकेले पंजाब में ही अनुमानित तौर पर 44 से 51 मिलियन मेट्रिक टन पराली जलायी जाती है. इससे होने वाला प्रदूषण हवाओं के साथ दिल्ली-एनसीआर में पहुंच जाता है. अध्ययन के मुताबिक केवल धान के अवशेष को जलाने से ही 2015 में भारत में 66,200 मौतें हुईं. इतना ही नहीं, अवशेष जलने से मिट्टी की उर्वरता पर भी बुरा असर पड़ा. साथ ही, इससे पैदा होने वाली ग्रीन हाउस गैस की वजह से पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचता है.

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धान की फसल के बाद भी किसान कर सकते हैं आलू की खेती, जाने सम्पूर्ण जानकारी

धान की फसल के बाद भी किसान कर सकते हैं आलू की खेती, जाने सम्पूर्ण जानकारी

आलू की खेती रबी के मौसम में बड़े पैमाने पर की जाती है। उत्तर प्रदेश में आलू की खेती सबसे ज्यादा की जाती है। आलू की खेती किसी भी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है। आलू की बुवाई का कार्य छोटे किसानों द्वारा हाथ से किया जाता हैं वही बड़े किसानों द्वारा मशीन से  बुवाई का कार्य किया जाता हैं। अब किसानों द्वारा आलू की खेती धान की कटाई के बाद भी की जा सकती हैं। इस लेख में हम आपको आलू की खेती के बारे में सम्पूर्ण जानकरी देंगे।

आलू की बुवाई के लिए भूमि की तैयारी 

आलू की बुवाई के लिए सबसे पहले भूमि की अच्छे तरीके से जुताई होनी चाहिए। खेत की जुताई के बाद आलू की रोपाई से पहले उसमे जैविक खाद को भी मिलाया जाता हैं ताकि आलू की उर्वरकता अच्छे से हो सके। आलू की खेती करने से पहले भूमि की कम से कम दो से तीन बार जुताई करनी चाहिए। अंतिम जुताई से पहले खेत में 4 से 5 ट्राली गोबर की खाद डालनी चाहिए और बाद में जुताई करके उसे खेत में अच्छी तरीके से मिला दे, ताकि पूरे खेत में खाद फ़ैल जाये और भूमि को ज्यादा उपजाऊ बनाया जा सके। इस खाद के प्रयोग से खेत की उर्वरा शक्ति भी बनी रहेगी और आलू के उत्पादन में भी इजाफा होगा।

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आलू की बुवाई का सबसे अच्छा समय क्या हैं

आलू की बुवाई के लिए सबसे अच्छा समय सितम्बर से अक्टूबर के बीच का महीना माना जाता है।  यानी जब धान की कटाई पूरी हो जाती हैं इसके तुरत बाद यदि किसान आलू की खेती करना चाहे तो कर सकता है।  15 सितम्बर से 15अक्टूबर के बीच का समय आलू की बुवाई के लिए बेहतर माना जाता हैं। साल में आलू की बुवाई दो बार की जाती हैं। सितम्बर माह से आलू की बुवाई को अगेती बुवाई माना जाता है। किसान नवंबर से दिसंबर के महीने में भी आलू की पछेती रोपाई करते है।

आलू की फसल में कितनी बार सिंचाई की जानी चाहिए

आलू की बुवाई के बाद खेत में 3 - 4 सिंचाई की जानी चाहिए। यदि आलू की फसल में ज्यादा पानी लगाया जायेगा तो फसल खराब भी हो सकती है। आलू की फसल में हमेशा हल्की से माध्यम सिंचाई ही करनी चाहिए। आलू की खुदाई के कुछ दिन पहले से ही सिंचाई को रोक देना   चाहिए। अगर सिंचाई का कार्य रोका नहीं जाता हैं तो इससे फसल को भारी नुक्सान पहुंच सकता हैं। आलू के खेत में सिर्फ इतना ही पानी देना चाहिए जिससे मिट्टी में नमी रह सके। यदि आपको लगता हैं की आलू के पौधे पीले पड रहे हैं, तो उसी समय खेत में पानी देना बंद कर दे।

क्या आलू की खेती में ज्यादा लागत आती हैं

आलू की खेती में अन्य फसलों के मुकाबले ज्यादा लागत नहीं आती हैं।आलू की खेती छोटे किसान भी लाभ उठाने के लिए कर सकते है। आलू की खेती भारत के बहुत से राज्यों में सामान्य रूप से करी जाती है। आलू की फसल का उत्पादन किसान द्वारा साल में दो बार किया जा सकता हैं आलू की खेती में बहुत ही कम पानी की आवश्कता रहती है।  यदि किसान रासायनिक पदार्थो का उपयोग करके उत्पादन नहीं करना चाहते हैं तो वो जैविक खाद का भी उपयोग कर सकते हैं या फिर गोबर खाद का भी उपयोग किसानो द्वारा किया जा सकता है।

आलू की खुदाई कब की जाती हैं

आलू की खुदाई मध्य मार्च के महीने में करी जाती हैं। आलू की खुदाई का सही समय मध्य मार्च  ही माना जाता है। आलू की फसल लगभग 60 दिन में पककर तैयार हो जाती हैं, लेकिन ज्यादा से ज्यादा समय 90-110 दिन का समय आलू की फसल को पकने में लगता है। आलू की खुदाई के बाद कम से कम आलू को कुछ दिनों के लिए सूखने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए ताकि आलू को विभिन्न रोगों से बचाया जा सके। आलू की फसल को कई प्रकार के रोगों से बचाने के लिए किसानों द्वारा आलू को कोल्ड स्टोर जैसी जगहों पर स्टॉक कर दिया जाता हैं, ताकि आलू की कीमत बढ़ने पर आलू को स्टोर से निकाला जा सके और उन्हें अच्छी कीमतों पर बेचा जा सकें। 

MSP पर छत्तीसगढ़ में मूंग, अरहर, उड़द खरीदेगी सरकार

MSP पर छत्तीसगढ़ में मूंग, अरहर, उड़द खरीदेगी सरकार

फसल विविधीकरण को बढ़ावा देना लक्ष्य

छत्तीसगढ़ प्रदेश सरकार ने
मूंग, अरहर और उड़द की उपज की समर्थन मूल्य पर खरीद करने की घोषणा की है। खरीद प्रक्रिया क्या होगी, किस दिन से खरीद चालू होगी, किसान को इसके लिए क्या करना होगा, सभी सवालों के जानिए जवाब मेरीखेती पर। छत्तीसगढ़ सरकार ने प्रदेश में कृषकों के मध्य फसल विविधता (Crop Diversification) को बढ़ाना देने के लिए यह फैसला किया है। इसके तहत छत्तीसगढ़ प्रदेश सरकार ने दाल के न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था में बदलाव किया है।

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अधिक मूल्य दिया जाएगा -

सरकार के निर्णय के अनुसार अब दलहन पैदा करने वाले किसानों को दाल का न्यूनतम समर्थन मूल्य अधिक दिया जाएगा। ऐसा करने से प्रदेश में अधिक से अधिक किसान दलहनी फसलों की खेती के लिए प्रोत्साहित होंगे।

दलहनी फसलों को प्रोत्साहन -

छत्तीसगढ़ प्रदेश राज्य सरकार ने छग में दलहनी फसलों की खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए मूंग, अरहर, उड़द की उपज के लिए समर्थन मूल्य की घोषणा की है।

फसल विविधीकरण (Crop Diversification) -

मूंग, अरहर, उड़द जैसी पारंपरिक दलहनी फसलों को समर्थन मूल्य प्रदान करने का राज्य सरकार का मकसद फसल विविधीकरण को बढ़ावा देना भी है।

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फसल विविधीकरण के लिए राज्य सरकार ने मूंग, उड़द और अरहर को एमएसपी की दरों पर खरीदने की घोषणा की है।

इतनी मंडियों में खरीद -

ताजा सरकारी निर्णय के बाद छत्तीसगढ़ प्रदेश की 25 मंडियों में अब न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर दाल की खरीदारी की जाएगी। मंडिंयों का चयन करते समय इस बात का ख्याल रखा गया है कि, अधिक से अधिक किसान प्रदेश सरकार की योजना से लाभान्वित हों। मंडियां नजदीक होने से दलहनी फसलों की खेती करने वाले किसानों को मौके पर लाभ मिलेगा और उनकी कमाई बढ़ेगी।

खरीफ खरीद वर्ष 2022-23 -

राज्य सरकार के फैसले के तहत अब छत्तीसगढ़ प्रदेश में मौजूदा खरीफ फसल (Kharif Crops) खरीद वर्ष 2022-23 में अरहर, मूंग और उड़द की खरीद एमएसपी पर की जाएगी। सरकारी सोसायटी को हरा मूंग बेचने वाले किसानों को प्रति क्विंटल 7755 रुपए मिलेंगे। राज्य सरकार द्वारा संचालित नोडल एजेंसी छत्तीसगढ़ राज्य सहकारी विवणन संघ (मार्कफेड) द्वारा राज्य में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर दाल की खरीदारी की जाएगी।

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दलहनी फसलों का रकबा बढ़ाना लक्ष्य -

छत्तीसगढ़ के कृषि मंत्री रविंद्र चौबे ने राज्य में दलहन फसलों का रकबा बढ़ाने का आह्वान किया। उन्होंने कृषि विभाग को किसानों को दलहन की पैदावार करने के लिए जी तोड़ मेहनत करने के लिए भी प्रेरित किया। उन्होंने छत्तीसगढ़ राज्य के किसानों को दलहनी फसलों की खेती के लिए प्रोत्साहित करने के लिए और फसल विविधीकरण को बढ़ावा देने हेतु दाल को एमएसपी के दायरे में लाने की सरकारी मंशा की जानकारी दी।

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मीडिया को उन्होंने बताया कि, 2022-23 के खरीफ फसल प्लान के अनुसार दलहनी फसलों का रकबा बढ़ा है। उन्होेंने दलहनी फसलों के रकबे में 22 फीसदी की बढ़ोतरी होने की जानकारी दी।

उत्पादन का लक्ष्य बढ़ा -

राज्य सरकार ने इस साल प्रदेश में दो लाख टन से अधिक (232,000) दाल उत्पादन का लक्ष्य रखा है। यह लक्ष्य पिछले खरीफ सीजन के संशोधित अनुमान से लगभग 67.51 फीसदी अधिक है।

पिछली खरीद के आंकड़े -

छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने खरीफ सीजन 2021-22 में राज्य के दलहन उत्पादक किसानों से 139,040 टन दाल की खरीद की थी। पिछले साल के 501 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की तुलना में इस बार 520 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर दाल उत्पादन का लक्ष्य प्रदेश में रखा गया है।

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अहम होंगी ये तारीख -

प्रवक्ता सूत्र आधारित मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक राज्य सरकार ने इस साल एमएसपी पर दाल की खरीद के लिए सभी संभागीय आयुक्त, कलेक्टर, मार्कफेड रीजनल ऑफिस और मंडी बोर्ड को विस्तृत दिशा-निर्देश दिए हैं। किसानों के लिए एमएसपी पर उड़द, मूंग और अरहर बेचने की तारीख जारी कर दी गई है। इसके मुताबिक किसान 17 अक्टूबर 2022 से लेकर 16 दिसंबर 2022 तक उड़द और मूंग की उपज एमएसपी पर बेच पाएंगे। अरहर की खरीद 13 मार्च 2023 से लेकर 12 मई 2023 तक की जाएगी।
हरियाणा फसल विविधीकरण योजना के लिए लक्ष्य निर्धारित

हरियाणा फसल विविधीकरण योजना के लिए लक्ष्य निर्धारित

भूजल स्तर में गिरावट का निदान

धान छोड़ने वाले किसान का सम्मान

फसल विविधता के लिए लक्ष्य निर्धारित

हरियाणा प्रदेश सरकार ने राज्य में क्रॉप डायवर्सिफिकेशन (Crop Diversification) यानी फसल विविधीकरण के लिए हरियाणा फसल विविधीकरण योजना (मेरा पानी मेरी विरासत - Mera Pani Meri Virasat) शुरू की है। हरियाणा क्रॉप डायवर्सिफिकेशन स्कीम (Haryana Crop Diversification Scheme) अर्थात हरियाणा फसल विविधीकरण योजना के तहत, धान की पारंपरिक फसल छोड़ने वाले किसानों को सरकार द्वारा प्रोत्साहित किया जाएगा।
हरियाणा फसल विविधीकरण योजना के सरकारी दस्तावेज (अंग्रेजी में) पढ़ने या पीडीऍफ़ डाउनलोड के लिए, यहां क्लिक करें
इस स्कीम के तहत धान जैसी पारंपरिक फसल त्यागने का निर्णय लेने वाले किसानों को प्रति एकड़ 7 हजार रुपये की राशि बतौर प्रोत्साहन प्रदान की जाती है। राज्य सरकार मक्का उगाने वाले किसानों को 2400 रुपये प्रति एकड़ और दलहन (मूंग, उड़द, अरहर) की पैदावार करने वाले कृषकों को 3600 रुपये प्रति एकड़ के मान से अनुदान राशि प्रदान करती है।


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आपको बता दें हरियाणा सरकार की ओर से फसल विविधीकरण स्कीम (Haryana Crop Diversification Scheme) के तहत यह प्रोत्साहन राशि किसान को सिर्फ 5 एकड़ की कृषि भूमि के लिए ही प्रदान की जाती है। राज्य सरकार द्वारा साल 2022 के लिए निर्धारित लक्ष्य के अनुसार प्रदेश की 50 हज़ार एकड़ कृषि भूम पर योजना का लाभ प्रदान किया जाएगा।

स्कीम का कारण

हरियाणा प्रदेश में किसानों द्वारा एक सी फसल उगाने के कारण खेतों की पैदावार क्षमता प्रभावित हो रही है। एक जैसे रसायनों एवं कीटनाशकों के सालों से हो रहे प्रयोग के कारण कृषि भूमि की उर्वरता भी खतरे में है। साथ ही राज्य में भूजल स्तर में भी गिरावट देखी जा रही है।


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इन सभी समस्याओं के मूलभूत उपचार फसल विविधीकरण के तरीके को अपनाते हुए सरकार ने हरियाणा फसल विविधीकरण स्कीम को बतौर प्रोत्साहन राज्य में लागू किया है।

फसल बदलने प्रोत्साहन

फसल विविधीकरण स्कीम में सालों से चली आ रही एक सी फसल उगाने की परंपरा के बजाए किसानों को बदल-बदल कर कृषि भूमि, पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य उपयोगी फसल उगाने के लिए प्रेरित किया जाता है। इस योजना के जरिए प्रदेश में धान की खेती के बजाए दूसरी खेती फसल अपनाने वाले किसानों को प्रोत्साहन राशि प्रदान की जाती है।

अनुदान का प्रबंध

अन्य फसलों जैसे कपास, मक्का, दलहन, ज्वार, अरंडी, मूंगफली, सब्जी एवं फल आदि की किसानी करने वाले किसानों को अनुदान राशि भी प्रदेश में प्रदान की जा रही है।

योजना का उद्देश्य

हरियाणा प्रदेश सरकार ने हरियाणा फसल विविधीकरण योजना को लागू करने का निर्णय, राज्य में भूजल की बढ़ती परेशानी के निदान के लिए लिया है। धान की खेती में बहुत मात्रा में पानी की जरूरत होती है। मूल तौर पर धान की किसानी की वजह से प्रदेश के भूजल स्तर में चिंतनीय गिरावट देखी गई है।


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इस समस्या के प्राकृतिक समाधान के तहत प्रदेश में फसल विविधीकरण के लक्ष्य को निर्धारित किया गया है। क्रॉप डायवर्सिफिकेशन स्कीम से प्रदेश में अन्य फसलों की खेती तरीकों में भी वृद्धि होगी। इससे भूजल गिरावट की समस्या का भी समाधान हो सकेगा

चावल पीता है पानी

कृषि अनुसंधान के अनुसार 1 किलोग्राम चावल की पैदावार के लिए औसतन 300 लीटर पानी लगता है। इस खपत को नियंत्रित करने के लिए हरियाणा सरकार ने फसल विविधीकरण के लक्ष्य पर काम करना शुरू किया है, ताकि घट रहे भूजलस्तर की समस्या का समय रहते प्राकृतिक तरीके से समाधान किया जा सके।

अंतिम तारीख 31 अगस्त

हरियाणा फसल विविधीकरण योजना 2022 के तहत योजना संबंधी आवेदन जमा करने की प्रदेश सरकार ने अंतिम समय सीमा 31 अगस्त 2022 तय की है। इसके लिए आवेदक को आधार कार्ड क्रमांक से संबद्ध बैंक खाता संबंधी जानकारी आवेदन पत्र में दर्शानी होगी। योजना के पात्र हितग्राही आवेदक को राज्य सरकार की ओर से दी जाने वाली प्रोत्साहन धन राशि उसके बैंक खाते में जमा की जाएगी।

कृषि यंत्र अनुदान

हरियाणा फसल विविधीकरण योजना (Haryana Crop Diversification Scheme) के जरिये सरकार द्वारा किसानों को कृषि यंत्र खरीदने के लिए अनुदान भी प्रदान किया जाएगा।

योजना इनके लिए है

हरियाणा फसल विविधीकरण योजना का लाभ प्रदेश के निवासी को ही प्रदान किया जाएगा। योजना के अनुसार कृषक को पिछले वर्ष की तुलना में धान के रकबे के कम से कम 50% हिस्से में दूसरी फसलों की पैदावार करना होगी।


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इसके अलावा बैंक खाता, आधार कार्ड, निवास प्रमाण पत्र, कृषि योग्य भूमि संबंधी दस्तावेज, पहचान पत्र, मोबाइल नंबर, बैंक खाता विवरण,

पासपोर्ट साइज फोटो भी आवेदक को योजना के लिए दर्शाना होगी।

हरियाणा फसल विविधीकरण योजना के अंतर्गत रजिस्ट्रेशन कराने के लिए कृषक मित्र, कृषि एवं किसान कल्याण विभाग हरियाणा की आधिकारिक वेबसाइट पर पंजीकरण करा सकते हैं।
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भूमंडलीकरण के दौर में जलवायु परिवर्तन एवं उससे होने वाले नुकसान आधुनिक युग में एक बड़ी समस्या बनते जा रहे हैं, जिसके कारण सामान्य जनजीवन से लेकर खेती किसानी तक हर कुछ बेहद नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रहा है। इसका एक कारण यह भी है कि आजकल तीव्र जलवायु परिवर्तन के साथ एक ही फसल को बार-बार लेने से खेतों की उर्वरा शक्ति बेहद कमजोर होती जा रही है, जिसके कारण खेती में उत्पादन कम होता जा रहा है और लागत एवं आय में फासला बेहद चौड़ा होता जा रहा है। इस समस्या का समाधान करने के लिए और समस्या से पूरी तरह से निपटने के लिए सरकारें समय-समय पर नई योजनाएं लाती रहती हैं। सरकार ने इसके लिए एक कमेटी भी गठित की है जो इस प्रकार की समस्याओं पर सुझाव देती है, ताकि इन समस्याओं से निपटने के लिए सरकार नई योजनाएं लागू कर सके।


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हरियाणा सरकार इस प्रकार की समस्याओं से निपटने के लिए एक नई स्कीम लेकर आई है जिसके अंर्तगत 'फसल विविधीकरण' (जिसे हम 'क्रॉप डायवर्सिफिकेशन' (Crop Diversification) के नाम से भी जानते हैं) के लिए राज्य सरकार 7,000 रुपये प्रति एकड़ की सरकारी सहायता मुहैया करवाती है। हरियाणा सरकार ऐसा इसलिए कर रही है क्योंकि सूबे में धान की खेती करने वाले किसानों की संख्या काफी है। इसलिए हरियाणा सरकार फसल विविधीकरण के नाम पर धान की खेती छोड़ने वाले किसानों को 7,000 रुपये प्रति एकड़ की दर से मुआवजा देने जा रही है। यह सहायता राशि उन किसानों को दी जाएगी जो अपने खेतों में नियमित रूप से धान की खेती करते हैं और पानी बचाने के लिए धान की खेती की जगह दूसरी खेती करना चाहते हैं या जमीन को खाली छोड़ना चाहते हैं। इस स्कीम में अप्लाई करने की आखिरी तारीख 31 अगस्त है। इसलिए किसान भाइयों के लिए यह अच्छा मौका है कि वो 31 अगस्त के पहले हरियाणा राज्य की कृषि विभाग की वेबसाइट पर आवेदन कर दें या फिर जिला कृषि अधिकारी से संपर्क करें। इस योजना में आवेदन करने के लिए मात्र 1 दिन शेष हैं। 31 अगस्त के पहले आवेदन करने वाले किसानों को 7,000 रुपये प्रति एकड़ की सरकारी सहायता मुहैया करवाई जाएगी। इसके बाद आने वाले आवेदनों पर विचार नहीं किया जाएगा।

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यह योजना क्यों शुरु की गई ?

राज्य के कई क्षेत्रों में घटते हुए जलस्तर के कारण सरकार ने 'मेरा पानी मेरी विरासत' (Mera Pani Meri Virasat) योजना को शुरू करने का निर्णय लिया है, क्योंकि कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार एक किलो चावल के उत्पादन में करीब 3000 लीटर पानी की जरुरत होती है। इसलिए इस योजना के तहत, यदि कोई किसान नियमित रूप से धान की खेती करने वाला किसान है और वह इस खेती को छोड़कर खेत खाली छोड़ना चाहता है, तो सरकार किसान को 7,000 रुपये प्रति एकड़ की सहायता राशि मुहैया करवाएगी। हरियाणा सरकार की ओर से फसल विविधीकरण स्कीम योजना का पूरा सरकारी दस्तावेज पढ़ने या पीडीऍफ़ डाउनलोड के लिए, यहां क्लिक करें सरकार इस पर पूरा जोर लगा रही है ताकि किसान ज्यादा पानी की खपत वाली खेती को छोड़ दें, जिससे आने वाली पीढ़ियां भी उस जमीन पर खेती कर सकें, क्योंकि बिना पानी और जमीन में बगैर नमी के खेती संभव नहीं है। अभी तक हरियाणा के ज्यादातर क्षेत्रों में भूमिगत जल का स्तर 100 मीटर से भी नीचे चला गया है। इसके साथ ही राज्य के 142 ब्लॉकों में से 85 ब्लॉक डार्क जोन घोषित कर दिए गए हैं। इसलिए सरकार की यह कोशिश है कि जहां पानी की कमी हो रही है, वहां अब फसल विविधीकरण शुरू कर देना चाहिए।


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इस योजना में किन किन ब्लाकों को किया गया है सम्मिलित ? इस योजना में अब तक राज्य के 19 ब्लाकों को सम्मिलित किया गया है, जिनमें धान की रोपाई बेहद ज्यादा है और भूजल स्तर तेजी से गिर रहा है। इन ब्लाकों में फतेहाबाद में रतिया, कुरुक्षेत्र में शाहाबाद, इस्माइलाबाद, पिपली और बबैन, कैथल के सीवन और गुहला तथा सिरसा प्रमुख हैं। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कहा है कि जिस ब्लॉक में भूमिगत जल का स्तर 35 मीटर से नीचे है उस ब्लॉक की पंचायतों को धान की खेती की अनुमति नहीं दी जाएगी। इसकी जगह पर मुख्यमंत्री ने किसानों से अन्य फसलें जैसे कि मक्का, अरहर, मूंग, उड़द, तिल, कपास, सब्जी की खेती करने का अनुरोध किया है। इसके साथ ही यह योजना उन ब्लाकों में भी लागू की जाएगी जहां खेती में 50 हार्स पावर से अधिक क्षमता वाले ट्यूबवेल का उपयोग हो रहा है।


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राज्य में अभी तक कितने लोगों ने छोड़ी है धान की खेती ?

हरियाणा सरकार एक द्वारा चालै गई स्कीम 'मेरा पानी मेरी विरासत' से प्रभावित होकर अभी तक लगभग 1.14 लाख एकड़ से अधिक क्षेत्र में किसानों ने धान की खेती करना बंद कर दी है। इसके अलावा राज्य में में जलवायु परिवर्तन और घटता हुआ जलस्तर अन्य समस्या है जिससे स्वतः ही किसानों ने इस खेती से किनारा कर लिया है। राज्य सरकार द्वारा चलाई गई 'मेरा पानी मेरी विरासत' योजना में अब तक 74 हजार से अधिक किसान लाभप्रद हुए हैं। इन किसानों ने ज्यादा पानी वाली फसलों को त्यागकर कम पानी वाली फसलें अपने खेतों में उपजायी हैं। इस योजना के तहत राज्य भर के किसानों ने अब तक 76 करोड़ रूपये की प्रोत्साहन राशि सीधे अपने बैंक खातों में प्राप्त की है। इस तरह से राज्य के किसानों की कोशिश है कि इस खेती को अब छोड़ दिया जाए और अब धीरे-धीरे किसान धान की खेती से किनारा करते जा रहे हैं।

कितने किसानों ने किया है अभी तक आवेदन ?

अभी तक इस योजना के अंतर्गत 800 किसान आवेदन कर चुके हैं। मेरी खेती मेरी विरासत योजना का लाभ लेकर किसान धान की फसल को त्यागना चाहते हैं। क्योंकि इस फसल में अत्यधिक मात्रा में पानी का उपयोग किया जाता है। 800 आवेदनों का मतलब एक बड़ी कृषि भूमि में इस साल धान की खेती नहीं की जाएगी। धान को छोड़कर किसाओं द्वारा इन खेतों में मक्का,सब्जियां, कपास, उड़द और टिल की खेती किये जाने की संभावना है। पिछले साल लगभग 20,000 एकड़ में धान की बुआई की गई थी। जिससे इस साल सरकार रोकना चाहती है ताकि गिरते हुए भूमिगत जल के स्तर को बचाया जा सके।
बदलते मौसम और जनसँख्या के लिए किसानों को अपनाना होगा फसल विविधिकरण तकनीक : मध्यप्रदेश सरकार

बदलते मौसम और जनसँख्या के लिए किसानों को अपनाना होगा फसल विविधिकरण तकनीक : मध्यप्रदेश सरकार

केंद्र सरकार किसानों के लिए विभिन्न प्रकार की योजना बना रही है, जिससे न सिर्फ किसानों की आय बढ़ेगी, बल्कि इससे पर्यावरण भी सुरक्षित रहेगा। हाल ही के दिनों में एक ऐसे योजना की शुरुआत हुई है, जिसको जान कर किसान हैरान रह जायेंगे। इस योजना में आपको बताया जायेगा कि अब एक साथ आप कैसे विभिन्न प्रकार की खेती कर सकते हैं ताकि आपकी आय बढ़कर तिगुना हो जाए। इस योजना का नाम है “फसल विविधिकरण(Crop Diversification)। इस बदलते समय और बढ़ते जनसँख्या के लिए यह फसल विविधिकरण योजना एक बहुत ही आवश्यक कदम है। इस योजना से न सिर्फ किसानों की आय बढ़ेगी, बल्कि यह उनके खेत का भी स्वास्थ्य ठीक करेगा जिससे अन्य फसलें भी अच्छे से उग सकेंगी। इस योजना पर केंद्र सरकार बहुत जोर दे रही है, लेकिन आपको आश्चर्य होगा कि मध्य प्रदेश सरकार ने इस तरह की योजना की शुरुआत बहुत पहले कर दी थी, जिसमें धान, गेहूं और अन्य पारंपरिक खेती के अलावा सरकार अब फूल, सब्जी और मसाला की खेती पर काफी जोर दे रही है। इसके साथ-साथ फल पौधा रोपण और क्रॉप डायवर्सिफिकेशन पर भी सरकार नजर बनाये हुए है।

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गौरतलब है कि साल 2022-23 में 2 हज़ार हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में फल पौधा रोपण अभियान के तहत विभिन्न प्रकार के पौधे लगाये गए हैं, जिसमें आम, अमरुद, संतरा, निम्बू, काजू, अनार, ड्रैगन फ्रूट, स्ट्रॉबेरी, केला जैसे पौधे शामिल थे। इन फलों का उत्पादन शुरू हो चुका है। इसके अलावा सब्जी उत्पादन के क्षेत्र में फसल विविधिकरण का उपयोग किया जा रहा है, खीरा, शिमला मिर्च, लौकी, भिन्डी और अन्य सब्जी का उत्पादन किया जा रहा है। आपको बता दे कि फसल विविधिकरण का उपयोग कर पिछले वर्ष के मुकाबले इस वर्ष सब्जी, मसाला और फूल के उत्पादन में 6.45 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। आपको मालूम हो कि इस योजना को और मजबूती प्रदान करने के लिए राज्य के 137 से अधिक नर्सरी को स्वयं सहायता समूह से जोड़ा गया है, जिससे हजारों पौधे तैयार किए गए है। मध्य प्रदेश के उद्यानिकी और खाद्य प्रसंस्करण विभाग के कार्यों की समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री ने कहा की इस वर्ष कोल्ड स्टोरेज का 25 लाख मीट्रिक टन क्षमता वृद्धि का लक्ष्य रखा गया है। उसी समीक्षा बैठक में अधिकारियों को निर्देश दिया गया कि “एक जिला एक उत्पादन” के तहत बागवानी फसलो और उत्पादों की मार्केटिंग एक मिशन की तरह की जाएँ, जिससे किसानों को लाभ हो और पर्यावरण संरक्षण में भी मदद मिल सके।

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किसानों को मिलेगा प्रशिक्षण

मुख्यमंत्री ने अधिकारीयों को निर्देशित किया कि किसानों के विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाये, जिसमे उनको ड्रिप इर्रेगेशन (drip irrigation), जैविक बागवानी, माली प्रशिक्षण आदि के बारे में उनको बताया जाए ताकि उनकी आय बढे। इसके लिए जगह जगह प्रशिक्षण केंद्र व मुरौना में सेंटर ऑफ़ एक्सीलेंस प्रारंभ भी किया जाएगा। प्रदेश के दस जिलों को ग्रीन क्लस्टर हाउस के रूप में विकसत करने की भी बात कही गयी है, इसमें भोपाल, सीहोर, उज्जैन, रतलाम, नीमच, बड़वानी, खण्डवा, खरगौन जबलपुर और छिंदवाड़ा शामिल हैं। दस जिलों में बनेंगे ग्रीन हाउस क्लस्टर।

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प्रदेश में फसलों की उत्पादकता में वृद्धि और विविधीकरण, कृषि इंफ्रास्ट्रक्चर के प्रयास, प्रमाणित जैविक उत्पादन में वृद्धि, कृषि एवं उद्यानिकी उत्पादों का मूल्य संवर्धन पर भी चर्चा की गयी।  बैतूल जिले में शेडनेट निर्माण का क्लस्टर विकसित किया गया है। प्रदेश के दस जिलों भोपाल, सीहोर, उज्जैन, रतलाम, नीमच, बड़वानी, खण्डवा, खरगौन जबलपुर और छिंदवाड़ा में ग्रीन हाउस क्लस्टर विकसित किए जाएंगे। इस साल सीहोर, ग्वालियर और मुरैना में इनक्यूबेशन सेंटर्स का भूमि-पूजन किया गया है। अतिरिक्त रोजगार के लिए मत्स्यपालन, रेशम पालन विकास और मधुमक्खी पालन के कार्यों को बढ़ावा देने की बात भी कही गयी है।
कृषि क्षेत्र में पानी के कमी से निपटने के लिए किसानों को उठाने होंगे ये कदम

कृषि क्षेत्र में पानी के कमी से निपटने के लिए किसानों को उठाने होंगे ये कदम

कृषि उत्पादकता और खाद्य सुरक्षा के लिए पानी महत्वपूर्ण है, आजकल पानी की मात्रा चौंकाने वाली दर से कम हो रही है। सतत विकास के लिए सबसे बड़ी बाधाओं में से एक पानी की बढ़ती कमी भी है। प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए “फसल विविधिकरण” (Crop Diversification) को प्रोत्साहित करने और किसानों को डीजल ट्रैक्टरों के बजाय इलेक्ट्रिक ट्रैक्टरों का उपयोग करने के दिशा में आगे आना होगा। कृषि क्षेत्र के लिए जल संकट बढ़ता जा रहा है क्योंकि लोग अंधाधुंध पानी का अत्यधिक उपयोग कर रहे हैं। गेहूं-धान की फसल वाले क्षेत्रों में भूजल के अति प्रयोग के कारण जल स्तर भी कम हो रहा है, इसलिए कृषि के लिए पानी की कमी एक बड़ी समस्या के रूप में उभर रही है। अगर इसी तरह प्राकृतिक संसाधनों का दोहन जारी रहा तो आने वाले समय में सिंचाई तो दूर, पेयजल की भी भारी किल्लत हो सकती है। विश्वविद्यालय की ओर से आयोजित कृषि मेला में यह बात  चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कम्बोज ने कही है।

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उन्होंने कहा कि कृषि उत्पादन के लिए पानी एक महत्वपूर्ण संसाधन है और इसकी विश्वसनीय आपूर्ति होना महत्वपूर्ण है। जल का उचित प्रबंधन और संरक्षण करके हम इसे अगली पीढ़ी को दे सकते हैं। सूखे के खिलाफ लड़ाई में जल संरक्षण एक महत्वपूर्ण कदम है और पानी के संरक्षण के कई तरीके हैं। पानी के संरक्षण के कुछ तरीकों में कम पानी का उपयोग करना, पानी का कुशलतापूर्वक उपयोग करना और पानी का पुनर्चक्रण करना शामिल है। आधुनिक तकनीकों जैसे वर्षा जल संचयन, ड्रिप सिंचाई और स्प्रिंकलर सिंचाई के साथ पानी का कम से कम उपयोग किया जा सकता है।

ई-ट्रैक्टर का करे उपयोग

किसानों को संबोधित करते हुए कुलपति ने कहा की किसानों को जल संरक्षण के साथ–साथ पर्यावरण के संरक्षण पर भी जोर देना चाहिए।किसानों को अपने डीजल से चलने वाले उपकरणों के बजाय ई-ट्रैक्टर का उपयोग करने पर जोर देना चाहिए। इससे उत्पन्न होने वाले प्रदूषण की मात्रा में कमी आयेगी और ई ट्रैक्टर के उपयोग करने से डीजल पर होने वाले खर्च के पैसे भी बचेंगे और उन्होंने ई-ट्रैक्टर पर सरकार की ओर से मिलने वाली सब्सिडी की भी जानकारी दी। उन्होंने उन्नत किस्म की फसलों के बीजों के बारे में बताते हुए कहा की 35000 क्विंटल बीज यूनिवर्सिटी के द्वारा किसानों तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है। समारोह में उपस्थित लाला लाजपत राय पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान विश्वविद्यालय (लुवास / LUVAS) के कुलपति डॉ. विनोद कुमार वर्मा ने भी कृषि में जल संरक्षण की आवश्यकता को व्यक्त करते हुए कहा कि सिंचाई के पानी का कुशल प्रबंधन नहीं होने के कारण लगभग 70 प्रतिशत पानी बर्बाद हो रहा है, जिस पर गहन विचार करने की जरूरत है, क्योंकि बहुत सारे ऐसे राज्य है जिनके जमीन के नीचे का पानी पूरी तरह से खत्म हो चुका है, जो की एक अहम मुद्दा है। उन्होंने निवेश पर अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए कृषि व्यवसाय के साथसाथ पशुपालन के महत्व पर भी जोर दिया। भारतीय अर्थव्यवस्था में पशुधन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ग्रामीण आबादी के दो-तिहाई हिस्से को रोजगार देता है, जिससे उन्हें आजीविका मिलती है। देश के विभिन्न राज्यों में लंपी स्किन रोग की व्यापकता का उल्लेख करते हुए वर्मा ने पशुपालकों से कहा कि वे अपने पशुओं को इस बीमारी से बचाने के लिए हर तरह के सम्भव उपाय और सावधानी बरतना चाहिए, उन्होंने इस बीमारी पर काबू पाने के लिए हरियाणा सरकार और लुवास की ओर से चलाए जा रहे तमाम प्रयासों की जानकारी दी, कृषि मेला संयोजक और विस्तार शिक्षा निदेशक डॉ. बलवान सिंह मंडल ने किसानों की मदद के लिए डिज़ाइन की गई विश्वविद्यालय की विस्तार गतिविधियों के बारे में जानकारी दी।

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हरियाणा और आसपास के राज्यों के किसानों का हुआ जमावड़ा

हरियाणा और आसपास के राज्यों के कई किसान मेले में एकत्रित हुए। मेले के आयोजकों के द्वारा किसानों को सिंचाई, जल प्रबंधन और संरक्षण की जानकारी दी गई। मेले में किसानों के द्वारा लगाए गए स्टॉल भी आकर्षण का केंद्र बना हुआ था।

मिट्टी–पानी की खूब हुई जांच

विश्वविद्यालय की ओर से लगाए गए बीज बिक्री केंद्र के स्टॉल पर किसानों ने रवि फसलों के बीज को भारी मात्रा में खरीदा, साथ ही किसानों ने अपनी मिट्टी और पानी की जांच मेले में लगे हुए मिट्टी पानी जांच केंद्र पर करवाया। इस आयोजन के अवसर पर बेहतर कार्य करने वाले किसानों को सम्मानित भी किया गया और साथ ही किसान किस तरह से आत्मनिर्भर बने इसको लेकर किसानों को विशेष जानकारी और टिप्स दी गई।
मोटे अनाज (मिलेट) की फसलों का महत्व, भविष्य और उपयोग के बारे में विस्तृत जानकारी

मोटे अनाज (मिलेट) की फसलों का महत्व, भविष्य और उपयोग के बारे में विस्तृत जानकारी

भारत के किसान भाइयों के लिए मिलेट की फसलें आने वाले समय में अच्छी उपज पाने हेतु अच्छा विकल्प साबित हो सकती हैं। आगे इस लेख में हम आपको मिलेट्स की फसलों के बारे में अच्छी तरह जानकारी देने वाले हैं। मिलेट फसलें यानी कि बाजरा वर्गीय फसलें जिनको अधिकांश किसान मिलेट अनाज वाली फसलों के रूप में जानते हैं। मिलेट अनाज वाली फसलों का अर्थ है, कि इन फसलों को पैदा करने एवं उत्पादन लेने के लिए हम सब किसान भाइयों को काफी कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता। समस्त मिलेट फसलों का उत्पादन बड़ी ही आसानी से लिया जा सकता है। जैसे कि हम सब किसान जानते हैं, कि सभी मिलेट फसलों को उपजाऊ भूमि अथवा बंजर भूमि में भी पैदा कर आसान ढ़ंग से पैदावार ली जा सकती है। मिलेट फसलों की पैदावार के लिए पानी की जरुरत होती है। उर्वरक का इस्तेमाल मिलेट फसलों में ना के समान होता है, जिससे किसान भाइयों को ज्यादा खर्च से सहूलियत मिलती है। जैसा कि हम सब जानते हैं, कि हरित क्रांति से पूर्व हमारे भारत में उत्पादित होने वाले खाद्यान्न में मिलेट फसलों की प्रमुख भूमिका थी। लेकिन, हरित क्रांति के पश्चात इनकी जगह धीरे-धीरे गेहूं और धान ने लेली और मिलेट फसलें जो कि हमारी प्रमुख खाद्यान्न फसल हुआ करती थीं, वह हमारी भोजन की थाली से दूर हो चुकी हैं।

भारत मिलेट यानी मोटे अनाज की फसलों की पैदावार में विश्व में अव्वल स्थान पर है

हमारा भारत देश आज भी मिलेट फसलों की पैदावार के मामले में विश्व में सबसे आगे है। इसके अंतर्गत मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गुजरात, झारखंड, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में किसान भाई बड़े पैमाने पर मोटे अनाज यानी मिलेट की खेती करते हैं। बतादें, कि असम और बिहार में सर्वाधिक मोटे अनाज की खपत है। दानों के आकार के मुताबिक, मिलेट फसलों को मुख्यतः दो हिस्सों में विभाजित किया गया है। प्रथम वर्गीकरण में मुख्य मोटे अनाज जैसे बाजरा और ज्वार आते हैं। तो उधर दूसरे वर्गीकरण में छोटे दाने वाले मिलेट अनाज जैसे रागी, सावा, कोदो, चीना, कुटुकी और कुकुम शम्मिलित हैं। इन छोटे दाने वाले, मिलेट अनाजों को आमतौर पर कदन्न अनाज भी कहा जाता है।

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वर्ष 2023 को "अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष" के रूप में मनाया जा रहा है

जैसा कि हम सब जानते है, कि वर्ष 2023 को “अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष” के रूप में मनाया जा रहा है। भारत की ही पहल के अनुरूप पर यूएनओ ने वर्ष 2023 को मिलेट वर्ष के रूप में घोषित किया है। भारत सरकार ने मिलेट फसलों की खासियत और महत्ता को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2018 को “राष्ट्रीय मिलेट वर्ष” के रूप में मनाया है। भारत सरकार ने 16 नवम्बर को “राष्ट्रीय बाजरा दिवस” के रूप में मनाने का निर्णय लिया है।

मिलेट फसलों को केंद्र एवं राज्य सरकारें अपने-अपने स्तर से बढ़ावा देने की कोशिशें कर रही हैं

भारत सरकार द्वारा मिलेट फसलों की महत्ता को केंद्र में रखते हुए किसान भाइयों को मिलेट की खेती के लिए प्रोत्साहन दिया जा रहा है। मिलेट फसलों के समुचित भाव के लिए सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य में इजाफा किया जा रहा है। जिससे कि कृषकों को इसका अच्छा फायदा मिल सके। भारत सरकार एवं राज्य सरकारों के स्तर से मिलेट फसलों के क्षेत्रफल और उत्पादन में बढ़ोत्तरी हेतु विभिन्न सरकारी योजनाएं चलाई जा रही हैं। जिससे किसान भाई बड़ी आसानी से पैदावार का फायदा उठा सकें। सरकारों द्वारा मिलेट फसलों के पोषण और शरीरिक लाभों को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण एवं शहरी लोगों के मध्य जागरूकता बढ़ाने की भी कोशिश की जा रही है। जलवायु परिवर्तन ने भी भारत में गेहूं और धान की पैदावार को बेहद दुष्प्रभावित किया है। इस वजह से सरकार द्वारा मोटे अनाज की ओर ध्यान केन्द्रित करवाने की कोशिशें की जा रही हैं।

मिलेट यानी मोटे अनाज की फसलों में पोषक तत्व प्रचूर मात्रा में विघमान रहते हैं

मिलेट फसलें पोषक तत्वों के लिहाज से पारंपरिक खाद्यान गेहूं और चावल से ज्यादा उन्नत हैं। मिलेट फसलों में पोषक तत्त्वों की भरपूर मात्रा होने की वजह इन्हें “पोषक अनाज” भी कहा जाता है। इनमें काफी बड़ी मात्रा में प्रोटीन, फाइबर, विटामिन-E विघमान रहता है। कैल्शियम, पोटैशियम, आयरन कैल्शियम, मैग्नीशियम भी समुचित मात्रा में पाया जाता है। मिलेट फसलों के बीज में फैटो नुत्त्रिएन्ट पाया जाता है। जिसमें फीटल अम्ल होता है, जो कोलेस्ट्राल को कम रखने में सहायक साबित होता है। इन अनाजों का निमयित इस्तेमाल करने वालों में अल्सर, कोलेस्ट्राल, कब्ज, हृदय रोग और कर्क रोग जैसी रोगिक समस्याओं को कम पाया गया है।

मिलेट यानी मोटे अनाज की कुछ अहम फसलें

ज्वार की फसल

ज्वार की खेती भारत में प्राचीन काल से की जाती रही है। भारत में ज्वार की खेती मोटे दाने वाली अनाज फसल और हरे चारे दोनों के तौर पर की जाती है। ज्वार की खेती सामान्य वर्षा वाले इलाकों में बिना सिंचाई के हो रही है। इसके लिए उपजाऊ जलोड़ एवं चिकिनी मिट्टी काफी उपयुक्त रहती है। ज्वार की फसल भारत में अधिकांश खरीफ ऋतु में बोई जाती है। जिसकी प्रगति के लिए 25 डिग्री सेल्सियस से 30 डिग्री सेल्सियस तक तापमान ठीक होता है। ज्वार की फसल विशेष रूप से महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में की जाती है। ज्वार की फसल बुआई के उपरांत 90 से 120 दिन के समयांतराल में पककर कटाई हेतु तैयार हो जाती है। ज्वार की फसल से 10 से 20 क्विंटल दाने एवं 100 से 150 क्विंटल हरा चारा प्रति एकड़ की उपज है। ज्वार में पोटैशियम, फास्पोरस, आयरन, जिंक और सोडियम की भरपूर मात्रा पाई जाती है। ज्वार का इस्तेमाल विशेष रूप से उपमा, इडली, दलिया और डोसा आदि में किया जाता है।

बाजरा की फसल

बाजरा मोटे अनाज की प्रमुख एवं फायदेमंद फसल है। क्योंकि, यह विपरीत स्थितियों में एवं सीमित वर्षा वाले इलाकों में एवं बहुत कम उर्वरक की मात्रा के साथ बेहतरीन उत्पादन देती हैं जहां अन्य फसल नहीं रह सकती है। बाजरा मुख्य रूप से खरीफ की फसल है। बाजरा के लिए 20 से 28 डिग्री सेल्सियस तापमान अनुकूल रहता है। बाजरे की खेती के लिए जल निकास की बेहतर सुविधा होने चाहिए। साथ ही, काली दोमट एवं लाल मिट्टी उपयुक्त हैं। बाजरे की फसल से 30 से 35 क्विंटल दाना एवं 100 क्विंटल सूखा चारा प्रति हेक्टेयर की पैदावार मिलती है। बाजरे की खेती मुख्य रूप से गुजरात, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में की जाती है। बाजरे में आमतौर पर जिंक, विटामिन-ई, कैल्शियम, मैग्नीशियम, कॉपर तथा विटामिन-बी काम्प्लेक्स की भरपूर मात्रा उपलब्ध है। बाजरा का उपयोग मुख्य रूप से भारत के अंदर बाजरा बेसन लड्डू और बाजरा हलवा के तौर पर किया जाता है।

रागी (मंडुआ) की फसल

विशेष रूप से रागी का प्राथमिक विकास अफ्रीका के एकोपिया इलाके में हुआ है। भारत में रागी की खेती तकरीबन 3000 साल से होती आ रही है। रागी को भारत के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न मौसम में उत्पादित किया जाता है। वर्षा आधारित फसल स्वरुप जून में इसकी बुआई की जाती है। यह सामान्यतः आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बिहार, तमिलनाडू और कर्नाटक आदि में उत्पादित होने वाली फसल है। रागी में विशेष रूप से प्रोटीन और कैल्शियम ज्यादा मात्रा में होता है। यह चावल एवं गेहूं से 10 गुना ज्यादा कैल्शियम व लौह का अच्छा माध्यम है। इसलिए बच्चों के लिए यह प्रमुख खाद्य फसल हैं। रागी द्वारा मुख्य तौर पर रागी चीका, रागी चकली और रागी बालूसाही आदि पकवान निर्मित किए जाते हैं।

कोदों की फसल

भारत के अंदर कोदों तकरीबन 3000 साल पहले से मौजूद था। भारत में कोदों को बाकी अनाजों की भांति ही उत्पादित किया जाता है। कवक संक्रमण के चलते कोदों वर्षा के बाद जहरीला हो जाता है। स्वस्थ अनाज सेहत के लिए फायदेमंद होता है। इसकी खेती अधिकांश पर्यावरण के आश्रित जनजातीय इलाकों में सीमित है। इस अनाज के अंतर्गत वसा, प्रोटीन एवं सर्वाधिक रेसा की मात्रा पाई जाती है। यह ग्लूटन एलजरी वाले लोगो के इस्तेमाल के लिए उपयुक्त है। इसका विशेष इस्तेमाल भारत में कोदो पुलाव एवं कोदो अंडे जैसे पकवान तैयार करने हेतु किया जाता है।

सांवा की फसल

जानकारी के लिए बतादें, कि लगभग 4000 वर्ष पूर्व से इसकी खेती जापान में की जाती है। इसकी खेती आमतौर पर सम शीतोष्ण इलाकों में की जाती है। भारत में सावा दाना और चारा दोनों की पैदावार के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह विशेष रूप से महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार और तमिलनाडू में उत्पादित किया जाता है। सांवा मुख्य फैटी एसिड, प्रोटीन, एमिलेज की भरपूर उपलब्ध को दर्शाता है। सांवा रक्त सर्करा और लिपिक स्तर को कम करने के लिए काफी प्रभावी है। आजकल मधुमेह के बढ़ते हुए दौर में सांवा मिलेट एक आदर्श आहार बनकर उभर सकता है। सांवा का इस्तेमाल मुख्य तौर पर संवरबड़ी, सांवापुलाव व सांवाकलाकंद के तौर पर किया जाता है।

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चीना की फसल

चीना मिलेट यानी मोटे अनाज की एक प्राचीन फसल है। यह संभवतः मध्य व पूर्वी एशिया में पाई जाती है, इसकी खेती यूरोप में नव पाषाण काल में की जाती थी। यह विशेषकर शीतोष्ण क्षेत्रों में उत्पादित की जाने वाली फसल है। भारत में यह दक्षिण में तमिलनाडु और उत्तर में हिमालय के चिटपुट इलाकों में उत्पादित की जाती है। यह अतिशीघ्र परिपक्व होकर करीब 60 से 65 दिनों में तैयार होने वाली फसल है। इसका उपभोग करने से इतनी ऊर्जा अर्जित होती है, कि व्यक्ति बिना थकावट महसूस किये सुबह से शाम तक कार्यरत रह सकते हैं। जो कि चावल और गेहूं से सुगम नहीं है। इसमें प्रोटीन, रेशा, खनिज जैसे कैल्शियम बेहद मात्रा में पाए जाते हैं। यह शारीरिक लाभ के गुणों से संपन्न है। इसका इस्तेमाल विशेष रूप से चीना खाजा, चीना रवा एडल, चीना खीर आदि में किया जाता है।
फसल विविधीकरण के जरिए एक समय पर विभिन्न प्रकार की खेती की जा सकती है

फसल विविधीकरण के जरिए एक समय पर विभिन्न प्रकार की खेती की जा सकती है

फसल विविधीकरण के माध्यम से खेती में एक ही समय में विभिन्न तरह की फसलों की पैदावार जैव विविधता को बनाये रखते हुए किया जाता है। इस विधि माध्यम से खेती कर के किसान एक ही समय में अधिक फसलों को उगाकर अच्छा लाभ उठा सकते हैं। फसल विविधीकरण खेती की एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें फसलों की खेती में पारंपरिक तरीकों के साथ-साथ नवीन वैज्ञानिक तरीकों का भी उपयोग किया जाता है। फसलों की खेती में अन्य फसल प्रणालियों को भी बेहतरीन उपज हेतु जोड़ा जाता है। इस प्रकार की खेती में विभिन्न तरीकों से फसलों का उत्पादन बाजार की मांग के अनुरूप किया जाता है। इस फसल विविधीकरण के जरिए से कृषि क्षेत्र में एक ही समय में विभिन्न प्रकार की फसलों का उत्पादन जैव विविधता को बनाये रखते हुए किया जाता है, जिससे किसान एक ही खेत के अंदर विभिन्न प्रकार की फसलों का उत्पादन कर सकता है। भारत के विभिन्न राज्यों में पानी, श्रम एवं मृदा की गुणवत्ता के आधार पर किसान एक ही खेत में भिन्न-भिन्न फसलों की खेती कर फसलों का उत्पादन कर रहे है। आज हम इसके विभिन्न माध्यमों से खेती करने के तरीकों के विषय में बताने जा रहे हैं।

फसल विविधीकरण विधि कितने तरह की होती है

एकल फसली व्यवस्था

इस प्रक्रिया में खेतों में मिट्टी और जलवायु के आधार पर खेतों से बार-बार एक ही फसल उगाई जाती है. इस तरीके का इस्तेमाल उन क्षेत्रों में होता है जहां वर्षा व सिंचाई के जल का काफी ज्यादा अभाव होता है. ऐसी फसल विविधीकरण का इस्तेमाल ज्यादातर खरीफ के मौसम में किया जाता है।

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अंतर फसली

इसमें खेतों में एक साथ एक से ज्यादा फसलें अलग-अलग कतार में उगाई जाती हैं. इसे अंतरवर्ती खेती के नाम से भी जाना जाता है. उदाहरण के तौर पर टमाटर की फसल के तीन कतार के बीच सरसों, आलू, मसूर और मटर की खेती की जा सकती है.

रिले क्रॉपिंग

रिले क्रॉपिंग के अंतर्गत खेती करने के लिए भूमि को कई भागों में बाट दिया जाता हैं। इसके अंतर्गत भूमि के एक भाग में दो, तीन प्रकार की फसलें उगाई जा सकती हैं। इस खेती की पद्यति में खेत में पहली बोई गई फसल की कटाई करने के पश्चात ही दूसरी फसल की बुवाई की जा सकती है।

मिश्रित अंतर फसली

मिश्रित कृषि में एक खेत में एक समय में दो से तीन फसलों को अलग-अलग एक ही साथ में उगाया जाता है। इससे खेत की उत्पादन क्षमता में बढ़ोत्तरी होती है। इस प्रकार की खेती में फसलों को परागण काफी अच्छी तरह हो पाता है।

अवनालिका फसल प्रणाली

एली क्रॉपिंग की खेती में बड़े पेड़ों की पंक्तियों के मध्य सब्जियां और चारे वाली फसलों का उत्पादन किया जाता है। इस प्रणाली के अंतर्गत लंबे समय तक फसलों का उत्पादन किया जा सकता है। इस फसल पंक्ति में लकड़ी के उत्पादन वाले पेड़ों के साथ अखरोट एवं क्रिसमस जैसे पेड़ों के साथ सब्जियों का भी उत्पादन किसानों की आमदनी बढ़ाने हेतू इस विधि को सबसे अच्छा माना जाता है। इस बदलते वैज्ञानिक युग में फसल विविधीकरण से खेती के क्षेत्र में कीड़े, बीमारियां, खरपतवार और मौसम संबंधी समस्याओं की कमी आती है। इसके साथ ही, किसानों को खरपतवार व कीटनाशी जैसे उर्वरकों की उपयोगिता में कमी आती है।